खेजड़ली शहीदी मेला: 295 साल पुराने पर्यावरण बलिदान की स्मृति, सोने से सजीं बिश्नोई महिलाओं ने बिखेरी रौनक
जोधपुर के खेजड़ली गांव में शहीदी मेला आयोजित हुआ, जहां बिश्नोई समाज ने 295 साल पहले 363 लोगों के पर्यावरण रक्षा के बलिदान को याद किया। सोने के आभूषणों से सजीं महिलाएं मेले का मुख्य आकर्षण रहीं।

जोधपुर के खेजड़ली गांव में मंगलवार को विश्व प्रसिद्ध शहीदी मेला आयोजित हुआ, जहां बिश्नोई समाज ने 295 साल पहले पर्यावरण की रक्षा के लिए दिए गए 363 लोगों के बलिदान को याद किया। यह मेला न केवल प्रकृति प्रेम का प्रतीक है, बल्कि बिश्नोई समाज की सांस्कृतिक समृद्धि और आस्था का भी जीवंत उदाहरण है। मेले में सोने के आभूषणों से सजीं महिलाएं मुख्य आकर्षण रहीं, जिन्होंने अपनी परंपराओं को जीवंत रखते हुए शहीदों को श्रद्धांजलि दी।
खेजड़ली मेला: पर्यावरण संरक्षण का अनूठा उत्सव
जोधपुर से 22 किलोमीटर दूर खेजड़ली गांव में हर साल भादो की दशमी को यह मेला लगता है। इस बार मंगलवार को शुरू हुए मेले में जोधपुर, फलोदी, नागौर, बीकानेर, सांचौर, जालोर, पाली के अलावा हरियाणा, पंजाब और मध्य प्रदेश से भी हजारों लोग शामिल हुए। सुबह से ही गांव में भारी भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी। मेले के चलते शहीद स्थल के आसपास के रास्तों पर करीब 2 किलोमीटर लंबा जाम भी देखा गया।
मेले का मुख्य आकर्षण गुरु जम्भेश्वर भगवान का मंदिर रहा, जहां एक दिन पहले प्राण-प्रतिष्ठा समारोह आयोजित हुआ था। लोगों ने हवन कुंड में नारियल की आहुतियां देकर शहीदों को नमन किया। बिश्नोई समाज के लिए यह मेला केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि पर्यावरण और जीव रक्षा के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता का प्रतीक है।
अमृता देवी और 363 शहीदों की अमर गाथा
सन् 1730 में जोधपुर के महाराजा अभय सिंह के शासनकाल में नए महल के निर्माण के लिए खेजड़ली गांव से खेजड़ी के पेड़ काटने का आदेश दिया गया था। जब सैनिक रामू खोड़ के घर के बाहर खेजड़ी का पेड़ काटने पहुंचे, तो उनकी पत्नी अमृता देवी ने इसका विरोध किया। उन्होंने पेड़ से चिपककर नारा दिया, "सिर साठे रुख रहे तो भी सस्ता जाण"। सैनिकों ने उनकी कोई बात न सुनी और कुल्हाड़ी से उन्हें काट दिया। इसके बाद अमृता की तीन बेटियों—आसू, रत्नी और भागू बाई—ने भी पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी।
यह खबर गांव में आग की तरह फैली, और देखते ही देखते 71 महिलाओं और 292 पुरुषों समेत कुल 363 लोगों ने पेड़ों से चिपककर अपने प्राण त्याग दिए। जब यह बात महाराजा अभय सिंह तक पहुंची, तो उन्होंने पेड़ों की कटाई पर तुरंत रोक लगा दी और बिश्नोई समाज को लिखित वचन दिया कि मारवाड़ में कभी खेजड़ी का पेड़ नहीं काटा जाएगा।
सोने से सजीं महिलाएं: परंपरा और शान का प्रतीक
खेजड़ली मेले में बिश्नोई समाज की महिलाएं अपनी परंपरागत वेशभूषा और भारी सोने के आभूषणों में नजर आईं। कई महिलाओं ने 40 से 50 तोला तक सोने के गहने पहने, जिनकी कीमत लाखों में बताई जा रही है। जोधपुर के धवा गांव की एक महिला ने बताया कि वह बचपन से इस मेले में आ रही हैं और आभूषण पहनना बिश्नोई समाज की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है।
विश्व का पहला चिपको आंदोलन
खेजड़ली शहीदी मेला विश्व में अपनी तरह का अनूठा आयोजन है, क्योंकि यह विश्व का पहला चिपको आंदोलन माना जाता है। उस समय पर्यावरण संरक्षण का कोई बड़ा अभियान नहीं था, लेकिन अमृता देवी जैसे साधारण ग्रामीणों ने अपनी जान देकर प्रकृति संरक्षण का अनुपम उदाहरण पेश किया।
पर्यावरण और वन्यजीवों के लिए बिश्नोई समाज का योगदान
बिश्नोई समाज न केवल पेड़ों की रक्षा के लिए जाना जाता है, बल्कि वन्यजीवों के संरक्षण में भी उनकी अहम भूमिका रही है। हिरणों और अन्य जीवों को बचाने के लिए समाज के कई लोग शिकारियों की गोलियों का शिकार हो चुके हैं। राजस्थान सरकार ने भी इस ऐतिहासिक स्थल को ईको-टूरिज्म के रूप में विकसित किया है, जहां शहीदों की स्मृति में शिलालेख स्थापित किए गए हैं।