आजादी के अनसुने वीर: 79वें स्वतंत्रता दिवस पर उन नायकों को सलाम
79वें स्वतंत्रता दिवस पर, हम मातंगिनी हाजरा, कानक्लता बरुआ, उधम सिंह जैसे 10 गुमनाम नायकों की कहानियों को याद करते हैं, जिनके बलिदान ने भारत को आजादी दी। उनकी प्रेरणा से आइए, एकता और प्रगति का नया भारत बनाएँ।

15 अगस्त 2025 को, जब भारत अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा, तिरंगा पूरे देश में गर्व के साथ लहराएगा। लाल किले की प्राचीर से जन-गण-मन की धुन हवा में गूंजेगी, और हर भारतीय का दिल देशभक्ति से भर उठेगा। लेकिन यह आजादी मुफ्त में नहीं मिली। यह अनगिनत आंसुओं, बलिदानों और उन अनसुनी कहानियों की देन है, जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गई हैं। इस स्वतंत्रता दिवस पर, आइए उन 10 गुमनाम नायकों की कहानियों को फिर से जीवंत करें, जिन्होंने अपने खून और सपनों से भारत को आजादी का सूरज दिया। ये कहानियाँ न केवल हमारे दिलों को छूएँगी, बल्कि हमें यह भी याद दिलाएँगी कि आजादी एक अनमोल उपहार है, जिसे सहेजने की जिम्मेदारी हमारी है।
मातंगिनी हाजरा: तिरंगे की आखिरी साँस “वंदे मातरम्” की गूंज में अमर बलिदान
1942 की एक उमस भरी सुबह, बंगाल के तमलुक गाँव में 72 साल की मातंगिनी हाजरा सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों के साथ सड़कों पर थीं। उनके झुर्रियों भरे हाथों में तिरंगा लहरा रहा था, और होंठों पर वंदे मातरम् का गीत गूंज रहा था। ब्रिटिश पुलिस की लाठियाँ बरसीं, फिर गोलियाँ चलीं। पहली गोली उनके बाएँ हाथ को भेद गई। मातंगिनी ने तिरंगा दाएँ हाथ में थाम लिया। दूसरी गोली ने उनके दाएँ हाथ को छलनी कर दिया, लेकिन उन्होंने झंडा अपनी छाती से लगा लिया। तीसरी गोली उनके सीने को भेद गई, पर मातंगिनी, जिन्हें लोग “गांधी बुढ़ी” कहते थे, वंदे मातरम् गाती रहीं। जब उनकी साँसें थमीं, तब भी तिरंगा जमीन को नहीं छू सका। उम्र और कमजोरी देशप्रेम के सामने बौनी पड़ जाती है। मातंगिनी की यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा साहस दिल से निकलता है, शरीर की सीमाओं से नहीं।
कानक्लता बरुआ: 17 साल की क्रांति की लौ असम की नन्हीं शेरनी
1942 में असम के गोहपुर की सँकरी गलियों में 17 साल की कानक्लता बरुआ ने अपने साथियों से कहा, “आज हम पुलिस थाने पर तिरंगा फहराएँगे।” उनके चेहरे पर न डर था, न हिचक। जुलूस जैसे ही थाने के पास पहुँचा, ब्रिटिश पुलिस ने गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। कानक्लता ने तिरंगे को सीने से लगाया और आगे बढ़ती रहीं। एक गोली उनके कंधे को चीर गई, दूसरी उनके सीने में। लेकिन तिरंगा उनके हाथों से नहीं छूटा। उनके गिरते ही साथी गोलोक चंद्र बरुआ ने झंडा थामा और उसे थाने पर फहराया। कानक्लता की शहादत ने असम में क्रांति की ऐसी लौ जलाई, जो आज भी जलती है।
उम्र छोटी हो या बड़ी, देशप्रेम की कोई सीमा नहीं होती। कानक्लता की कहानी हमें बताती है कि साहस और संकल्प की कोई उम्र नहीं होती।
उधम सिंह: 21 साल का इंतजार, एक गोली का जवाब जलियाँवाला बाग का बदला
1919 में जलियाँवाला बाग की मिट्टी खून से लाल हो गई थी। उधम सिंह उस नरसंहार के गवाह थे। चीखें, लाशें, और मासूमों का दर्द उनके दिल में उतर गया। उन्होंने कसम खाई कि जिम्मेदार माइकल ओ’डायर को सजा देंगे। 21 साल तक वे धैर्यपूर्वक इंतजार करते रहे। 1940 में लंदन के एक हॉल में उधम सिंह ने ओ’डायर को गोली मार दी। अदालत में उन्होंने गर्व से कहा, “यह मेरे देश के लिए था।” फाँसी के फंदे पर भी उनके चेहरे पर मुस्कान थी।
उधम सिंह की कहानी धैर्य और संकल्प की अमर गाथा है। यह हमें सिखाती है कि सच्चा देशप्रेमी अपने लक्ष्य से कभी नहीं डिगता।
तारा रानी श्रीवास्तव: पति की शहादत, फिर भी अडिग दुखों पर देशप्रेम की जीत
1942 में बिहार की सड़कों पर तारा रानी श्रीवास्तव और उनके पति फूलन प्रसाद जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। तिरंगा हवा में लहरा रहा था, और नारे गूंज रहे थे। अचानक ब्रिटिश पुलिस ने गोलियाँ चलाईं। फूलन प्रसाद तारा के सामने ही शहीद हो गए। तारा का दिल टूट गया, लेकिन उन्होंने आँसुओं को थाम लिया। उन्होंने तिरंगा उठाया और जुलूस को आगे ले गईं।
तारा रानी ने साबित किया कि देशप्रेम निजी दुखों से बड़ा होता है। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा साहस दुखों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने में है।
रानी गाइदिन्ल्यू: नगा पहाड़ों की शेरनी 16 साल की बगावत
1930 में मणिपुर के नगा पहाड़ों में 16 साल की रानी गाइदिन्ल्यू ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया। अपनी छोटी सी सेना के साथ, उन्होंने ब्रिटिश चौकियों पर हमले किए। ब्रिटिश उन्हें “जंगली विद्रोही” कहते थे, पर उनके समुदाय ने उन्हें “देवी” माना। जेल में बंद होने के बाद भी उनकी आवाज़ गूंजती रही। जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें “नगा रानी” की उपाधि दी। आजादी के बाद भी, रानी ने अपने समुदाय के लिए लड़ाई जारी रखी।
रानी गाइदिन्ल्यू की कहानी हमें सिखाती है कि साहस और नेतृत्व की कोई उम्र नहीं होती।
कमला चौधरी: गाँव की मशाल क्रांति की चिंगारी
उत्तर प्रदेश के गाँवों में कमला चौधरी की आवाज़ गूंज रही थी। उन्हें लोग “क्रांति की मशाल” कहते थे। वे गाँव-गाँव घूमकर लोगों को भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित करती थीं। 1942 में जब ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया, तब भी उन्होंने जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी। उनकी आवाज़ ने गाँव की औरतों को घरों से बाहर निकाला और स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनाया।
कमला की कहानी हमें बताती है कि क्रांति छोटे-छोटे कदमों से शुरू होती है, और हर आवाज़ मायने रखती है।
अरुणा आसफ अली: तिरंगे की रक्षक साहस का दूसरा नाम
1942 में मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में एक नन्हीं सी कद-काठी की औरत ने तिरंगा फहराया। वह थीं अरुणा आसफ अली। ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की, लेकिन अरुणा भूमिगत हो गईं। उन्होंने “आजाद हिंद रेडियो” शुरू किया और अपनी आवाज़ से देश में क्रांति की चिंगारी जलाई। भेष बदलकर वे गाँव-गाँव घूमती रहीं।
अरुणा की कहानी हमें सिखाती है कि साहस का कोई आकार नहीं होता। एक छोटा सा कदम भी क्रांति ला सकता है।
बटुकेश्वर दत्त: गुमनाम क्रांतिकारी इंकलाब का साथी
1929 में दिल्ली की असेंबली में बम फेंकने की घटना को सभी भगत सिंह से जोड़ते हैं, लेकिन उस दिन उनके साथ एक और नौजवान था—बटुकेश्वर दत्त। बम फेंकने के बाद दोनों ने नारा लगाया, “इंकलाब जिंदाबाद!” जेल में बटुकेश्वर ने अमानवीय यातनाएँ सहीं, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी। आजादी के बाद वे गुमनामी में खो गए।
बटुकेश्वर की कहानी हमें बताती है कि सच्चा देशप्रेम प्रसिद्धि की चाहत से परे होता है।
दुर्गा भाभी: क्रांतिकारियों की ढाल बुद्धिमानी और साहस की मिसाल
1928 में लाहौर की सड़कों पर एक नवविवाहित जोड़ा ट्रेन में सवार हुआ। कोई नहीं जानता था कि वह जोड़ा भगत सिंह और दुर्गा भाभी था। दुर्गा भाभी ने भगत सिंह को अपनी पत्नी के भेष में लाहौर से कलकत्ता तक सुरक्षित पहुँचाया। उनके पति भगवती चरण वोहरा भी क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपनी जान गँवाई। फिर भी, दुर्गा भाभी ने क्रांतिकारियों को शरण देना और उनकी मदद करना नहीं छोड़ा।
दुर्गा भाभी की कहानी हमें सिखाती है कि बुद्धिमानी और साहस मिलकर असंभव को संभव बना सकते हैं।
अनजान सैनिक: गुमनाम नायकों की अमर गाथा हर दिल में बस्ती एक कहानी
इतिहास की किताबों में लाखों ऐसे नायक हैं, जिनके नाम हमें नहीं पता। वह किसान, जो अपनी फसल जलाकर ब्रिटिशों को कर देने से मना करता था। वह माँ, जो अपने बेटे को क्रांति के लिए भेजती थी। वह बच्चा, जो चुपके से क्रांतिकारी पर्चे बाँटता था। इन गुमनाम नायकों ने बिना किसी अपेक्षा के अपनी जान दी। उनकी कहानी एक गीत की तरह है, जो हर भारतीय के दिल में बस्ती है और हमें प्रेरित करती है कि आजादी की कीमत को कभी न भूलें।
15 अगस्त 2025 को, जब हम अपने देश की 79वीं स्वतंत्रता का उत्सव मना रहे हैं, इन अनसुने नायकों की कहानियाँ हमें पुकार रही हैं। यह पुकार है एक नए भारत के निर्माण की, जहाँ एकता, समानता, और प्रगति का झंडा बुलंद हो। आइए, इन वीरों के सपनों को साकार करें। हर गाँव, हर शहर, हर दिल में क्रांति की मशाल जलाएँ। यह हमारा देश है, और इसे विश्व के शिखर पर ले जाना हमारा संकल्प है।