थार के वीरान होते काफिले: ऊंटों का अस्तित्व क्यों है खतरे में?
ऊंटों की घटती संख्या: एक पारंपरिक जीवनशैली और पारिस्थितिकी तंत्र पर संकट...

ऊंट, जिसे पारंपरिक रूप से "रेगिस्तान का जहाज़" कहा जाता है, भारत के थार क्षेत्र के लिए सिर्फ एक पशु नहीं, बल्कि संस्कृति, आजीविका और पर्यावरण का अभिन्न हिस्सा रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में ऊंटों की संख्या में जो गिरावट आई है, वह चिंता का विषय है। वर्ष 1961 में जहां भारत में लगभग 10 लाख ऊंट थे, वहीं 2019 तक यह संख्या घटकर केवल 2.5 लाख रह गई। इस शोध में हम ऊंटों की घटती संख्या के कारणों, इसके सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिक प्रभावों तथा इससे जुड़े संभावित समाधान पर चर्चा करेंगे।
ऊंटों की घटती संख्या के मुख्य कारण
चरागाहों तक पहुंच में बाधा
सरकार द्वारा पारंपरिक चराई मार्गों पर रोक लगाई गई है। जंगलों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर देने से ऊंटों को उनके पारंपरिक चारागाहों से वंचित कर दिया गया है।
आर्थिक अव्यवस्था
ऊंट पालन अब आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं रह गया है। दूध, बाल, और मेहनत के बदले ऊंटों की कोई स्थायी बाज़ार नहीं है। सरकार द्वारा ऊंट पालन को समर्थन नहीं मिलने के कारण पशुपालक हतोत्साहित हो रहे हैं।
नए कानून और धार्मिक-राजनीतिक हस्तक्षेप
राजस्थान जैसे राज्यों में ऊंट को "राज्य पशु" घोषित किया गया, जिससे इसके व्यापार और परिवहन पर कई कानूनी प्रतिबंध लग गए। इससे ऊंट मेलों और व्यापार में भारी गिरावट आई।
नई पीढ़ी की बेरुखी
युवा अब पारंपरिक ऊंटपालन की ओर आकर्षित नहीं हैं। वे बेहतर शिक्षा और नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
समाज और पर्यावरण पर प्रभाव
पारंपरिक आजीविका पर खतरा: रैबारी, रायका और मालधारी जैसे समुदाय, जो पीढ़ियों से ऊंट पालन करते आ रहे थे, आज रोजगार और पहचान के संकट से जूझ रहे हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन: ऊंट एक पर्यावरण-अनुकूल पशु है जो कम पानी में जीवित रह सकता है और जैव विविधता को संतुलित रखने में सहायक होता है। इनकी संख्या में कमी से रेगिस्तानी पारिस्थितिकी असंतुलित हो रही है।
पर्यटन और संस्कृति का नुकसान: ऊंट राजस्थान की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। ऊंट सफारी, मेलों और त्योहारों में इसकी अहम भूमिका रही है। इसकी कमी से सांस्कृतिक पर्यटन पर भी असर पड़ा है।
समाधान और सुझाव
ऊंटपालकों को आर्थिक सहायता
सरकार को ऊंट पालन को सब्सिडी, बीमा योजना और दूध विपणन जैसी योजनाओं से प्रोत्साहित करना चाहिए।
चरागाहों की पुनर्बहाली
पारंपरिक चराई स्थलों को फिर से बहाल किया जाए और वन कानूनों में चरवाहा समुदायों के लिए लचीलापन दिया जाए।
ऊंट आधारित उत्पादों को बढ़ावा देना
ऊंट के दूध से बने उत्पादों जैसे आइसक्रीम, साबुन, और दवाओं का प्रचार-प्रसार किया जाए। ऊंटनी दूध को औषधीय गुणों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उतारा जा सकता है।
शैक्षणिक और सामाजिक जागरूकता
ऊंट पालन की उपयोगिता को लेकर नई पीढ़ी में जागरूकता लाई जाए ताकि यह परंपरा आगे भी जीवित रह सके।
ऊंटों की घटती संख्या केवल एक पशु के संकट की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक समूचे सांस्कृतिक और पारिस्थितिक ताने-बाने के बिखरने की चेतावनी है। यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो हम न केवल एक जीव प्रजाति खो देंगे, बल्कि उन समुदायों और परंपराओं को भी खो देंगे जो हमारे समाज की विविधता और इतिहास का अभिन्न हिस्सा हैं।