फुले फिल्म समीक्षा - समाज सुधारकों की जुझारू क्रांति का सजीव दस्तावेज़.....
ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के संघर्षों पर आधारित यह फिल्म जाति, धर्म और पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ समानता की अपील करती है।

फुले फिल्म समीक्षा - समाज सुधारकों की जुझारू क्रांति का सजीव दस्तावेज़.....
ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के संघर्षों पर आधारित यह फिल्म जाति, धर्म और पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ समानता की अपील करती है।
‘फुले’ फिल्म समाज सुधारकों की जुझारू क्रांति का सजीव दस्तावेज़...
ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के संघर्षों पर आधारित यह फिल्म जाति, धर्म और पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ समानता की अपील करती है।
अनंत महादेवन निर्देशित फिल्म ‘फुले’ हमारे देश के महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के जीवन संघर्षों को जीवंत करती है। 1848 से 1897 के बीच फैले इस ऐतिहासिक कालखंड में बनी यह फिल्म समाज की जड़ें जमाई गई जाति व्यवस्था और पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ एक क्रांति का प्रतीक है।
फिल्म में प्रतीक गांधी ने ज्योतिबा फुले और पत्रलेखा ने सावित्रीबाई फुले के किरदार को पूरी निष्ठा और गंभीरता से निभाया है। जहां 13 साल की लड़कियों की शिक्षा पर बंधे प्रथा और रूढ़ियों को चुनौती दी गई, वहीं फिल्म ने दिखाया कि कैसे इस युगल ने बेटी पढ़ाने, विधवाओं के पुनर्वास, और निचली जातियों के उत्थान के लिए संघर्ष किया।
फुले ने जाति के नाम पर हो रहे भेदभाव को तोड़ने के लिए अपने घर में कुआं बनवाया, ताकि दबे-कुचले लोग भी पानी पी सकें। उनकी क्रांति में उस्मान शेख जैसे अन्य समुदाय के साथी भी साथ थे, जो सामाजिक समरसता का सशक्त संदेश देते हैं।
फिल्म का तकनीकी पक्ष ठीक-ठाक है, और रोहन-रोहन का संगीत कहानी के साथ मेल खाता है। हालांकि फिल्म का प्रस्तुतीकरण डॉक्यूमेंट्री और ड्रामा के बीच कहीं-कहीं उपदेशात्मक लग सकता है, परंतु यह कहानी अपने संदेश में प्रभावशाली है।
‘फुले’ सिर्फ एक बायोपिक नहीं, बल्कि उस क्रांति की ज्योति है, जिसे ज्योतिबा फुले ने जलाया था। आज के समय में जब धर्म और जाति के नाम पर देश में संघर्ष बढ़ रहे हैं, यह फिल्म हमें समानता और सामाजिक न्याय का संदेश देती है।
परफॉर्मेंस की बात: प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने किरदारों में फूंकी जान ...
एक्टिंग की बात करें तो प्रतीक गांधी ने ज्योतिबा फुले के किरदार को पूरी संजीदगी और गहराई के साथ निभाया है। उनके हावभाव, संवाद अदायगी और शरीर की भाषा में एक विचारशील, विद्रोही और करुणामयी समाज सुधारक की छवि साफ झलकती है। वहीं पत्रलेखा के लिए यह शायद अब तक का सबसे चुनौतीपूर्ण और सशक्त किरदार है। सावित्रीबाई फुले के रूप में उन्होंने शिक्षा, संघर्ष और संवेदना की त्रिवेणी को बखूबी दर्शाया है। हालांकि कहीं-कहीं उनकी डायलॉग डिलीवरी थोड़ी सपाट लगती है, लेकिन उनका समर्पण किरदार में पूरी तरह झलकता है। दोनों कलाकारों की परफॉर्मेंस फिल्म की आत्मा को मजबूती देती है।
यदि आप प्रेरणादायक और इतिहास से जुड़ी फिल्मों के शौकीन हैं, तो ‘फुले’ को एक बार जरूर देखें।