गुजरात-राजस्थान की सीमा पर बसी गरासिया जनजाति में सदियों से प्रचलित है ‘लिव-इन’ जैसी परंपरा ...

महिलाओं को साथी चुनने की आज़ादी, समाज भी देता है स्वीकृति...गरासिया जनजाति में न तो दहेज प्रथा है, न ही शादी को लेकर कोई भव्य आयोजन की बाध्यता। यदि लिव-इन संबंध समय के साथ मजबूत होता है, तो परिवार उसे एक प्रकार का विवाह मान लेते हैं।

May 29, 2025 - 17:57
May 29, 2025 - 17:59
गुजरात-राजस्थान की सीमा पर बसी गरासिया  जनजाति में सदियों से प्रचलित है ‘लिव-इन’ जैसी परंपरा ...

जहाँ देश के शहरी हिस्सों में 'लिव-इन रिलेशनशिप' को लेकर आज भी सामाजिक बहस छिड़ी रहती है, वहीं राजस्थान-गुजरात की सीमाओं पर निवास करने वाली गरासिया जनजाति में यह परंपरा सदियों से सहज और सामाजिक स्वीकृति के साथ चली आ रही है।

क्या है गरासिया जनजाति की यह परंपरा?

गरासिया जनजाति मुख्यत दक्षिणी राजस्थान बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर और उत्तर-पूर्वी गुजरात सबरकांठा, बनासकांठा, पंचमहल की पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती है। यहाँ युवक और युवती के बीच विवाह से पूर्व सहजीवन लिव-इन रिलेशनशिप को सामाजिक मान्यता प्राप्त है।

इस परंपरा को स्थानीय बोली में "मौतरा" या "धानी-प्रथा" कहा जाता है। इसमें युवक-युवती पारिवारिक सहमति से साथ रहते हैं, और यह पूरी तरह से समुदाय द्वारा मान्य होता है।

गांवों में साल में एक बार विशेष मेला आयोजित किया जाता है, जो दो दिन तक चलता है। इस मेले में आसपास के गांवों के युवक और युवतियां बड़ी संख्या में भाग लेते हैं। यह मेला किसी जीवनसाथी की खोज का अवसर बनता है। युवक-युवती मेले में एक-दूसरे को देखते हैं । अगर उन्हें कोई पसंद आ जाता है, तो वे मेले से भाग जाते हैं और कुछ समय तक एक साथ बिना विवाह के रहते हैं इस दौरान अगर महिला गर्भवती भी हो जाए, तो समाज इसे पूरी तरह से स्वीकार करता है।

महिलाओं को है जीवनसाथी चुनने की पूरी स्वतंत्रता

गरासिया समाज में महिलाओं को अपने साथी को चुनने की पूरी आज़ादी है। यदि किसी कारण से यह संबंध टूट जाता है, तो महिला को नए साथी के साथ रहने का भी अधिकार होता है — और समाज इसमें हस्तक्षेप नहीं करता।

यह परंपरा महिला सशक्तिकरण का उदाहरण मानी जा सकती है, जहाँ विवाह को ज़रूरी सामाजिक बंधन नहीं माना गया है, बल्कि सहमति और सम्मान को प्राथमिकता दी जाती है।

दहेज नहीं, संवाद होता है आधार

गरासिया जनजाति में न तो दहेज प्रथा है, न ही शादी को लेकर कोई भव्य आयोजन की बाध्यता। यदि लिव-इन संबंध समय के साथ मजबूत होता है, तो परिवार उसे एक प्रकार का विवाह मान लेते हैं। यहाँ संबंधों का आधार सामाजिक दबाव नहीं, बल्कि आपसी विश्वास और समझदारी होती है।

आधुनिक भारत की 'नई सोच', परंपरागत समाज में पहले से मौजूद

यह बात आश्चर्यजनक है कि जिसे आज शहरी भारत ‘नई सोच’ कहता है, वह इस आदिवासी समाज में पुरानी परंपरा है।
समाजशास्त्रियों का मानना है कि ग्रेसिया जैसी जनजातियाँ हमें यह सिखाती हैं कि संबंधों की नींव आपसी सहमति, स्वतंत्रता और बराबरी पर भी टिक सकती है।

संस्कृति, परंपरा और आधुनिकता का मेल

ग्रेसिया जनजाति की यह परंपरा न केवल उनके सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाती है, बल्कि यह इस बात का भी प्रमाण है कि आदिवासी जीवन में सामाजिक स्वतंत्रता और सम्मान का कितना गहरा स्थान है।

जहाँ एक ओर देश में लिव-इन रिलेशनशिप पर क़ानूनी और नैतिक बहसें चल रही हैं, वहीं यह जनजाति सदियों से इसे सहजता से जी रही है, बिना किसी सामाजिक कलंक के।

Yashaswani Journalist at The Khatak .