बाड़मेर की झोपड़ियों में बस्ती जिंदगी: गरीबी और उम्मीद के बीच जूझता समुदाय
बाड़मेर के जोगी समुदाय की झोपड़ियों में बस्ती जिंदगी गरीबी और उपेक्षा की कहानी कहती है, फिर भी शिक्षा और बदलाव की छोटी-सी उम्मीद जाग रही है। यह समाज और सरकार के लिए एक बड़ा सवाल है।

रंग-बिरंगे परंपराओं और समृद्ध संस्कृति के लिए जाना जाने वाला राजस्थान अपनी रेतीली धरती पर कई ऐसी कहानियां समेटे हुए है, जो दिल को छू लेती हैं और सोचने पर मजबूर करती हैं। बाड़मेर से चौहटन जाने वाले हाईवे के किनारे, धूल भरी सड़कों के एक छोर पर बसी जोगी जाति की कच्ची झोपड़ियां इस बात का गवाह हैं कि विकास के बड़े-बड़े दावों के बीच कुछ लोग आज भी हाशिए पर जी रहे हैं। इन झोपड़ियों में रहने वाले परिवारों की जिंदगी न सिर्फ गरीबी और उपेक्षा की कहानी कहती है, बल्कि समाज और सरकार के सामने कई सवाल भी खड़े करती है।
तिरपाल और लकड़ियों में सिमटी जिंदगी
जोगी समुदाय के लोग पतली लकड़ियों और तिरपाल से बनी 10 बाय 12 फीट की छोटी-सी झोपड़ियों में रहते हैं। ये झोपड़ियां उनके लिए न सिर्फ घर हैं, बल्कि रसोई, शादी-ब्याह की जगह और सामाजिक जीवन का केंद्र भी हैं। एक झोपड़ी में औसतन 8 से 10 लोग रहते हैं, जहां बुनियादी सुविधाओं का नामोनिशान तक नहीं है। न तो इनके पास अपनी जमीन है, न पक्का मकान, और न ही बिजली या शौचालय जैसी जरूरतें। दिन में बच्चे और महिलाएं आसपास के घरों से भीख मांगकर लाए जूठन से पेट भरते हैं। पुरुष खुले में नहाते हैं, और महिलाएं तिरपाल के छोटे से छप्पर के नीचे स्नान करती हैं। रात होने से पहले ये लोग अपनी झोपड़ियों में सिमट जाते हैं, क्योंकि उनके पास बिजली का कोई साधन नहीं है।
बरसात का मौसम इनके लिए और मुश्किलें लेकर आता है। जब आसमान बरसता है, तो पूरा परिवार रात भर प्लास्टिक की चादर को पकड़कर जागता रहता है, ताकि वह उड़ न जाए और उनकी छोटी-सी दुनिया भीग न जाए। यह दृश्य न सिर्फ उनकी जिंदगी की कठिनाइयों को दर्शाता है, बल्कि उस उपेक्षा को भी उजागर करता है, जिसका सामना वे दशकों से कर रहे हैं।
कागजों में सिमटी योजनाएं, हकीकत से कोसों दूर
जोगी समुदाय के पास आधार कार्ड, वोटर कार्ड और राशन कार्ड तो हैं, लेकिन ये सिर्फ कागजों का ढेर बनकर रह गए हैं। इनका इस्तेमाल केवल मतदान के समय होता है। सरकार की योजनाएं, जो हर गरीब तक पहुंचने का दावा करती हैं, इनके दरवाजे तक नहीं पहुंचतीं। न तो इन्हें आवास योजना का लाभ मिला, न शौचालय, और न ही बिजली। सरकार के दावे कि हर घर में बिजली है और हर गरीब को पक्का मकान मिला है, इनके सामने खोखले साबित होते हैं। इनके पास न रोटी की गारंटी है, न कपड़ा, और न ही मकान।
जोगी समुदाय को ओबीसी वर्ग में शामिल किया गया है, लेकिन आरक्षण और अन्य सरकारी सुविधाएं उन तक नहीं पहुंच पातीं। एक बुजुर्ग ने बताया, “हमें वोट मांगने वाले तो मिल जाते हैं, लेकिन हमारी जिंदगी बेहतर करने वाला कोई नहीं आता।” यह बात उस कड़वी सच्चाई को दर्शाती है, जो इनके जीवन का हिस्सा बन चुकी है।
अंधेरे में उम्मीद की किरण
इन सबके बीच, जोगी समुदाय के कुछ परिवारों ने बदलाव की राह पकड़नी शुरू की है। उनके बच्चे अब स्कूल जाने लगे हैं। एक आठवीं कक्षा तक पढ़ी बच्ची ने बताया, “मैं और पढ़ना चाहती हूं, लेकिन स्कूल दूर है और माता-पिता को मेरी सुरक्षा की चिंता रहती है।” उसकी आंखों में भविष्य के सपने साफ झलक रहे थे। उसने गहरी सांस लेते हुए कहा, “अगर हम नहीं पढ़ेंगे, तो न जाने कितनी पीढ़ियां ऐसे ही रहेंगी।” कुछ युवा मजदूरी करने लगे हैं और थोड़ा-बहुत कमा रहे हैं, लेकिन यह बदलाव इतना छोटा है कि उनकी जिंदगी की बड़ी तस्वीर अभी भी धुंधली है।
इन परिवारों से बात करने पर उनकी आंखों में नाउम्मीदी के साथ-साथ एक हल्की-सी चमक भी दिखी। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे उस जिंदगी से बाहर निकलें, जो वे जी रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या समाज और सरकार उनकी इस उम्मीद को हकीकत में बदलने में मदद करेगी?
समाज और सरकार के लिए एक सवाल
जोगी समुदाय की यह कहानी न सिर्फ उनकी है, बल्कि उन तमाम लोगों की है, जो विकास के दावों के बीच हाशिए पर छूट गए हैं। यह तस्वीर उन नेताओं और अधिकारियों के लिए एक सवाल है, जो हर मंच से गरीबी खत्म होने का दावा करते हैं। यह एक चेतावनी है कि अगर हमने इन आवाजों को नहीं सुना, तो हमारा विकास अधूरा ही रहेगा।
जोगी समुदाय की ये झोपड़ियां सिर्फ तिरपाल और लकड़ियों से नहीं बनीं, ये उस उपेक्षा और भेदभाव से बनी हैं, जो हमारे समाज और सिस्टम का हिस्सा बन चुका है। क्या हम इन्हें सिर्फ देखकर भूल जाएंगे, या इनके लिए कुछ करेंगे? यह सवाल हर उस इंसान के लिए है, जो इस देश को बेहतर बनाना चाहता है।