माँ की ममता की कोख या हवस का कचरा: बाड़मेर के मासूम कब तक सजा भुगतेंगे?"
बाड़मेर जिला अस्पताल का पालना गृह इन दिनों उन मासूमों का पहला ठिकाना बन गया है, जिन्हें उनके अपने ही बेसहारा छोड़ जाते हैं। हाल ही में एक नवजात बच्ची को यहां छोड़ा गया। उसकी हालत गंभीर थी—शायद भूख, ठंड या लापरवाही ने उसे कमजोर कर दिया था। डॉक्टरों और स्टाफ ने दिन-रात एक कर उसे बचाया, और दो दिन बाद उसकी नन्ही मुस्कान ने बता दिया कि जिंदगी ने उसे एक और मौका दिया है। लेकिन यह खुशी अधूरी है। सिर्फ मार्च में तीन ऐसी बच्चियां यहां पहुंचीं, जिन्हें कोई अनजान शख्स छोड़ गया। अस्पताल प्रशासन के मुताबिक, इन बच्चों को इलाज के बाद बाल कल्याण समिति को सौंप दिया जाता है, जहां से उनकी जिंदगी का अगला सफर शुरू होता है। मगर सवाल यह है कि ये सफर शुरू होने से पहले ही इतना कांटों भरा क्यों हो जाता है? #### कंटीली झाड़ियों में दफन मासूमियत पालना गृह तक पहुंचने वाले बच्चे तो फिर भी खुशकिस्मत हैं। बाड़मेर की धरती पर कई बार ऐसी तस्वीरें सामने आई हैं, जो इंसानियत को शर्मसार कर देती हैं। कंटीली झाड़ियों में, प्लास्टिक के कट्टों में, गंदगी के ढेर में नवजात शिशुओं के शव मिलना आम हो गया है। इनमें ज्यादातर बेटियां होती हैं—वो मासूम जिन्हें शायद उनके लिंग के कारण ही जन्म लेते ही मौत के हवाले कर दिया गया। कुछ को राहगीरों ने जिंदा हालत में पाया और अस्पताल तक पहुंचाया,

रिपोर्टर/राजेंद्र सिंह:कहते हैं, मां की गोद में बच्चे को सुकून मिलता है, पिता का दुलार उसे दुनिया की हर मुश्किल से बचाता है। लेकिन बाड़मेर की धरती पर कुछ मासूमों के नसीब में न मां की ममता लिखी है, न पिता का आशीर्वाद। उनकी पहली सांसें अस्पताल के पालना गृह में गूंजती हैं, या फिर कंटीली झाड़ियों और गंदगी के ढेर में दम तोड़ देती हैं। एक नवजात बच्ची, जिसे कोई अनजान शख्स जिला अस्पताल के पालना गृह में छोड़ गया, उसकी नन्ही आंखों में जिंदगी की उम्मीद तब जगी जब दो दिन के इलाज ने उसे मौत के मुंह से खींच लिया। लेकिन यह कहानी सिर्फ उस एक बच्ची की नहीं है—यह उन तमाम मासूमों की चीख है, जिन्हें जन्म देने वाली मां ने शायद मजबूरी में, या बेरहम दुनिया के डर से, ठुकरा दिया। मार्च महीने में ही तीन ऐसी बेटियां पालना गृह में मिलीं, जिनके माता-पिता का कोई अता-पता नहीं। ये वो बच्चियां हैं, जिन्हें ममत्व की छांव और दया की करुणा से पहले समाज की क्रूरता ने गले लगाया। सोचिए, उस मां के दिल पर क्या गुजरी होगी, जिसने अपनी कोख से जन्मी संतान को अनजान हाथों में सौंप दिया? या उस पिता की आंखों में कितना अंधेरा छाया होगा, जो अपनी बेटी को कंधे पर उठाने की बजाय उसे कचरे के ढेर में छोड़ पालना गृह बना मासूमों का सहारा
बाड़मेर जिला अस्पताल का पालना गृह इन दिनों उन मासूमों का पहला ठिकाना बन गया है, जिन्हें उनके अपने ही बेसहारा छोड़ जाते हैं। हाल ही में एक नवजात बच्ची को यहां छोड़ा गया। उसकी हालत गंभीर थी—शायद भूख, ठंड या लापरवाही ने उसे कमजोर कर दिया था। डॉक्टरों और स्टाफ ने दिन-रात एक कर उसे बचाया, और दो दिन बाद उसकी नन्ही मुस्कान ने बता दिया कि जिंदगी ने उसे एक और मौका दिया है। लेकिन यह खुशी अधूरी है। सिर्फ मार्च में तीन ऐसी बच्चियां यहां पहुंचीं, जिन्हें कोई अनजान शख्स छोड़ गया। अस्पताल प्रशासन के मुताबिक, इन बच्चों को इलाज के बाद बाल कल्याण समिति को सौंप दिया जाता है, जहां से उनकी जिंदगी का अगला सफर शुरू होता है। मगर सवाल यह है कि ये सफर शुरू होने से पहले ही इतना कांटों भरा क्यों हो जाता है?
कंटीली झाड़ियों में दफन मासूमियत
पालना गृह तक पहुंचने वाले बच्चे तो फिर भी खुशकिस्मत हैं। बाड़मेर की धरती पर कई बार ऐसी तस्वीरें सामने आई हैं, जो इंसानियत को शर्मसार कर देती हैं। कंटीली झाड़ियों में, प्लास्टिक के कट्टों में, गंदगी के ढेर में नवजात शिशुओं के शव मिलना आम हो गया है। इनमें ज्यादातर बेटियां होती हैं—वो मासूम जिन्हें शायद उनके लिंग के कारण ही जन्म लेते ही मौत के हवाले कर दिया गया। कुछ को राहगीरों ने जिंदा हालत में पाया और अस्पताल तक पहुंचाया, लेकिन मृत हालत में मिलने वाले नवजातों का आंकड़ा कहीं ज्यादा है। ये वो बच्चे हैं, जिन्हें न मां की लोरी सुनने का हक मिला, न पिता की गोद में खेलने का सौभाग्य। इनकी जिंदगी शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई, और इनके माता-पिता शायद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते।
समाज का आलम और आंकड़ों की सच्चाई
बाड़मेर में नवजातों को छोड़ने या मारने की घटनाएं कोई नई बात नहीं हैं। पिछले कुछ सालों में ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें ज्यादातर पीड़ित बेटियां ही रही हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि गरीबी, अशिक्षा और बेटियों को बोझ मानने की मानसिकता इसके पीछे बड़े कारण हैं। लेकिन क्या सिर्फ ये कारण काफी हैं? क्या हर मां अपनी कोख से जन्मी संतान को यूं ही त्याग देती है, या इसके पीछे कोई और कड़वी सच्चाई छिपी है? अस्पताल के रिकॉर्ड बताते हैं कि पालना गृह में छोड़े गए बच्चों की संख्या हर साल बढ़ रही है, और मृत हालत में मिलने वाले शिशुओं का आंकड़ा इससे भी ज्यादा भयावह है। ये आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन मासूमों की चुप्पी हैं, जो अपनी कहानी बयां करने से पहले ही खामोश हो गए।
ममता पर सवाल, करुणा की कमी
हर बच्चे के जन्म के साथ एक मां का ममत्व जागता है, एक पिता का दुलार उमड़ता है। फिर ऐसा क्या हो जाता है कि वही मां अपनी संतान को कचरे में फेंक देती है? क्या मजबूरी इतनी बड़ी हो सकती है कि करुणा भी दम तोड़ दे? बाड़मेर की इन घटनाओं को देखकर लगता है कि ये सिर्फ व्यक्तिगत फैसले नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक विफलता का नतीजा हैं। कुछ लोग इसे बेटियों के प्रति भेदभाव से जोड़ते हैं, तो कुछ इसे अवैध संबंधों और सामाजिक दबाव का परिणाम मानते हैं। लेकिन सच जो भी हो, इन मासूमों का कसूर क्या है? वो तो अभी दुनिया को समझने भी नहीं आए थे, फिर उन्हें सजा क्यों?
गुस्से का आलम: जवाब कौन देगा?
ये कैसी दुनिया बना दी हमने, जहां मासूमों की सांसें हवस की भेंट चढ़ जाती हैं, नशे में डूबे लोग अपनी संतान को कचरे में फेंक देते हैं, और अवैध संबंधों का बोझ नन्ही जानों पर डाल दिया जाता है? आखिर कब तक बेटियां कांटों में कुचली जाएंगी? कब तक पालना गृह मां की गोद की जगह लेंगे? कब तक गंदगी के ढेर में मासूमियत दफन होगी? ये सवाल सिर्फ बाड़मेर के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए हैं। क्या हमारी संवेदनाएं इतनी मर चुकी हैं कि इन मासूमों की चीखें हमें नहीं सुनाई देतीं? या फिर हम सब इस गुनाह के मूक गवाह बनकर रह गए हैं? जवाब दो, क्योंकि इन सवालों का वजन उन मासूमों की लाशों से कहीं ज्यादा भारी है, जो आज भी कहीं कांटों में पड़ी हमारी अंतरात्मा को ललकार रही हैं।