खेजड़ी का आंसुओं भरा क्रंदन: रेगिस्तान की आत्मा की पुकार
खेजड़ी, रेगिस्तान की आत्मा और राजस्थान का राज्य वृक्ष, सोलर और विंड कंपनियों की अंधाधुंध कटाई से संकट में है। बिश्नोई समाज और पर्यावरण प्रेमी इसके बचाव के लिए संघर्षरत हैं।

रेगिस्तान की तपती रेत में, जहां सूरज की आग धरती को झुलसाती है, खेजड़ी का वृक्ष सदियों से एक मूक रक्षक की तरह खड़ा है। यह राजस्थान का राज्य वृक्ष है, जिसे 31 अक्टूबर 1983 को यह सम्मान मिला। खेजड़ी सिर्फ एक पेड़ नहीं, बल्कि थार के रेगिस्तान में जीवन की धड़कन है। इसकी सांगरी, पत्तियां, छाल और छांव ने न जाने कितनी पीढ़ियों को अकाल, गर्मी और अभावों से बचाया। लेकिन आज, यह वृक्ष अपनी ही धरती पर मृत्यु की कगार पर खड़ा है। सोलर और विंड एनर्जी कंपनियों की लालच और प्रशासन की उदासीनता ने खेजड़ी और इसके साथी वृक्षों—रोहिड़ा, जाल, कुमट, और केर—को संकट में डाल दिया है। यह खबर खेजड़ी की उस अनकही पीड़ा की गूंज है, जो हमसे पूछ रही है: क्या हम अपनी धरोहर को यूं ही मिटने देंगे?
खेजड़ी: मरुस्थल का जीवनदाता
खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरिया) को मरुस्थल का कल्पवृक्ष कहा जाता है। इसकी जड़ें रेत में नाइट्रोजन संरक्षित करती हैं, जिससे बंजर भूमि भी उपजाऊ बनती है। इसकी पत्तियां पशुओं का चारा हैं, और सांगरी की फलियां स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन देती हैं। इसकी छाल और गोंद आयुर्वेद में गठिया, जोड़ों के दर्द और गैस जैसी बीमारियों का इलाज करती हैं। सबसे बड़ी बात, यह वृक्ष सूखे में भी हरा-भरा रहता है, और इसकी छांव रेगिस्तान की तपन में राहगीरों और पशुओं के लिए ठंडक का आलम है।
खेजड़ी का महत्व सिर्फ पर्यावरण तक सीमित नहीं। यह बिश्नोई समाज की आस्था का प्रतीक है। वेदों में इसे शमी वृक्ष के रूप में पूजा जाता है, जो विजय और शक्ति का प्रतीक है। दशहरे पर शमी की पूजा और होलिका दहन में इसकी शाखाएं इसकी पवित्रता की गवाही देती हैं। गोगाजी जैसे लोकदेवताओं के थानों से भी यह जुड़ा है, जहां हर शनिवार इसकी पूजा होती है। खेजड़ी रेगिस्तान के लोगों की आत्मा में बसी है, और इसकी हर डाल में उनकी कहानियां सांस लेती हैं।
खेजड़ली का बलिदान: एक अमर प्रेरणा
सन 1730 में जोधपुर के खेजड़ली गांव में एक ऐसी घटना घटी, जिसने पर्यावरण संरक्षण के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। मारवाड़ के महाराजा अभय सिंह ने अपने महल के लिए खेजड़ी के पेड़ काटने का आदेश दिया। इस अन्याय के खिलाफ अमृता देवी बिश्नोई ने अपनी तीन बेटियों—आसू, रत्नी, और भागू—के साथ पेड़ों से लिपटकर विरोध किया। उनका कथन, “सिर सांटे रूंख रहे, तो भी सस्तो जाण,” आज भी हर पर्यावरण प्रेमी के दिल में गूंजता है। उनके इस बलिदान ने बिश्नोई समाज को प्रेरित किया, और 363 लोग—71 महिलाएं और 292 पुरुष—पेड़ों की रक्षा में शहीद हो गए।
यह खेजड़ली नरसंहार विश्व में पर्यावरण संरक्षण की पहली मिसाल बना। इसने चिपको आंदोलन जैसे आधुनिक आंदोलनों को प्रेरणा दी। महाराजा ने इस बलिदान के बाद बिश्नोई गांवों में पेड़ काटने और शिकार पर प्रतिबंध लगाया, जो आज भी कायम है। हर साल 12 सितंबर को खेजड़ली में विश्व का अनूठा वृक्ष मेला होता है, जहां शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है। लेकिन क्या हम उनके बलिदान को भूल रहे हैं?
आज का संकट: हरित ऊर्जा की आड़ में विनाश
आज, 294 साल बाद, खेजड़ी फिर से खतरे में है। सौर और पवन ऊर्जा कंपनियां, जो हरित ऊर्जा का दावा करती हैं, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर और बाड़मेर में खेजड़ी और रोहिड़ा जैसे वृक्षों की बेरहमी से कटाई कर रही हैं। 2025 में केवल सात महीनों में, बीकानेर जिले में 17 स्थानों पर 3,000 से अधिक खेजड़ी के पेड़ काटे गए। ये कंपनियां अधिकतम जमीन के लिए पेड़ों को जड़ से उखाड़ रही हैं, और प्रशासन की चुप्पी इस तबाही को बढ़ावा दे रही है।
1955 का पुराना कानून, जिसमें पेड़ काटने की सजा मात्र 100 रुपये है, कंपनियों के लिए कोई डर नहीं पैदा करता। पर्यावरण प्रेमी जैसे कृष्णराम गोदारा और मोखराम धारणिया इसके खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज को दबाया जा रहा है। बीकानेर में 39 दिनों से 150 लोग धरने पर हैं, कुछ ने मुंह पर ताला लगाया, और अलका बिश्नोई जैसे लोग आमरण अनशन पर हैं। फिर भी, सरकार की खामोशी रेगिस्तान की रेत सी ठंडी है।
पर्यावरण और संस्कृति का अपूरणीय नुकसान
खेजड़ी की कटाई सिर्फ एक पेड़ का अंत नहीं, बल्कि पूरे मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र का पतन है। इसकी जड़ें रेत को बांधकर मरुस्थलीकरण रोकती हैं। इसकी अनुपस्थिति में मिट्टी का कटाव बढ़ेगा, और रेगिस्तान का विस्तार होगा। जलवायु परिवर्तन के इस युग में, जब ऑक्सीजन और हरियाली की सख्त जरूरत है, खेजड़ी जैसे सूखा-रोधी वृक्षों का नष्ट होना एक त्रासदी है। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि जोधपुर, नागौर और अन्य जिलों में खेजड़ी की मृत्यु दर 18-22% तक पहुंच चुकी है।
सांस्कृतिक रूप से, खेजड़ी बिश्नोई समाज की आस्था का केंद्र है। इसकी कटाई उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाती है। यह वृक्ष गोगाजी जैसे लोकदेवताओं के थानों का हिस्सा है। खेजड़ी का नुकसान रेगिस्तान के लोगों के लिए न केवल पर्यावरणीय, बल्कि भावनात्मक और आध्यात्मिक हानि है। यह एक ऐसी हानि है, जो दिल को चीरती है और आत्मा को झकझोरती है।
आंदोलन की पुकार: रविंदर और बिश्नोई समाज का संघर्ष
रेगिस्तान में आज रविंदर जैसे पर्यावरण प्रेमी और बिश्नोई समाज सड़कों पर हैं। नोखा दैया, जयमलसर, और छत्तरगढ़ में धरने, अनशन और प्रदर्शन जारी हैं। लोग मांग कर रहे हैं कि खेजड़ी की कटाई पर सख्त कानून बने, जिसमें 20 साल की सजा और लाखों रुपये का जुर्माना हो। लेकिन प्रशासन की उदासीनता और कंपनियों की मनमानी ने आंदोलन को उग्र कर दिया है।
सोशल मीडिया पर #SaveKhejri जैसे ट्रेंड चल रहे हैं, लेकिन क्या यह काफी है? अमृता देवी और उनके 363 साथियों की आत्मा आज भी हमसे सवाल कर रही है: क्या हम उनके बलिदान को यूं ही भूल जाएंगे? क्या हम रेगिस्तान की आत्मा को मरने देंगे?
हमारा दायित्व: खेजड़ी को बचाने का संकल्प
खेजड़ी का यह क्रंदन एक चेतावनी है। अगर हम आज चुप रहे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी। खेजड़ी सिर्फ एक पेड़ नहीं, बल्कि रेगिस्तान की आत्मा है। इसे बचाने के लिए हमें उठ खड़ा होना होगा:
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सख्त कानूनों की मांग: खेजड़ी और अन्य मरुस्थलीय वृक्षों की कटाई पर कठोर सजा और भारी जुर्माना हो। 100 रुपये का जुर्माना इस अपराध का मजाक है।
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वृक्षारोपण अभियान: सोलर और विंड कंपनियों को एक काटे गए पेड़ के बदले 10 पेड़ लगाने का नियम लागू हो।
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जागरूकता और सामुदायिक भागीदारी: स्कूलों, गांवों और शहरों में खेजड़ी के महत्व को फैलाने के लिए बिश्नोई समाज और पर्यावरण प्रेमियों के साथ मिलकर काम करना होगा।
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संतुलित हरित ऊर्जा: सोलर प्लांट्स के लिए ऐसी जमीनों का उपयोग हो, जहां वृक्षों को नुकसान न पहुंचे।
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खेजड़ली की भावना को जीवित रखना: अमृता देवी और उनके साथियों का बलिदान हमें साहस देता है। हमें उनके जैसे समर्पण की जरूरत है।
खेजड़ी की हर पत्ती में रेगिस्तान की कहानी है, हर डाल में बिश्नोई समाज की आस्था है, और हर जड़ में हमारी धरोहर है।