दिव्यांग बेटी लीला कुंवर की भावुक गुहार: पैरों से लिखा शिक्षा मंत्री को पत्र, ट्रांसफर की मांग
शारीरिक रूप से पूर्णतः दिव्यांग होने के बावजूद, लीला ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने अपने पैरों से लिखना सीखा और प्रारंभिक शिक्षक प्रशिक्षण (एसटीसी) पाठ्यक्रम में चयन हासिल किया। उनका सपना है कि वह एक शिक्षक बनकर दूसरों के लिए प्रेरणा बनें। लेकिन नियमानुसार, उन्हें प्रशिक्षण के लिए जोधपुर जिले के बोरुंदा में स्थित एक आवासीय संस्थान आवंटित किया गया है, जो उनके गृह जिले बाड़मेर से 300 किलोमीटर से अधिक दूर है।

एक ऐसी लड़की की कहानी, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी और अपने सपनों को पंख देने के लिए पैरों से लिखना सीखा। बाड़मेर की रहने वाली लीला कुंवर, जिन्होंने एक दर्दनाक हादसे में अपने दोनों हाथ खो दिए, आज अपने दृढ़ संकल्प और हौसले से समाज के लिए प्रेरणा बन रही हैं। लेकिन उनके सामने अब एक नई चुनौती खड़ी है, जिसे पार करने के लिए उन्होंने राजस्थान के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर को अपने पैरों से एक भावुक पत्र लिखकर मदद की गुहार लगाई है।
लीला कुंवर की जिंदगी तब पूरी तरह बदल गई, जब एक बिजली के करंट के हादसे में उनके दोनों हाथ कोहनी के ऊपर से काटने पड़े। शारीरिक रूप से पूर्णतः दिव्यांग होने के बावजूद, लीला ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने अपने पैरों से लिखना सीखा और प्रारंभिक शिक्षक प्रशिक्षण (एसटीसी) पाठ्यक्रम में चयन हासिल किया। उनका सपना है कि वह एक शिक्षक बनकर दूसरों के लिए प्रेरणा बनें। लेकिन नियमानुसार, उन्हें प्रशिक्षण के लिए जोधपुर जिले के बोरुंदा में स्थित एक आवासीय संस्थान आवंटित किया गया है, जो उनके गृह जिले बाड़मेर से 300 किलोमीटर से अधिक दूर है।
300 किलोमीटर दूर प्रशिक्षण केंद्र: एक असंभव चुनौती
लीला कुंवर की शारीरिक स्थिति ऐसी है कि वह पूरी तरह अपने परिजनों पर निर्भर हैं। वह न तो अकेले यात्रा कर सकती हैं और न ही रोजमर्रा के छोटे-मोटे काम कर सकती हैं। ऐसे में 300 किलोमीटर से अधिक दूरी तय करके प्रशिक्षण केंद्र तक जाना और वहां रहकर पढ़ाई करना उनके लिए लगभग असंभव है। इस बाधा को दूर करने के लिए लीला ने अपने पैरों से शिक्षा मंत्री को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने भावुक अपील की है कि उनका ट्रांसफर बाड़मेर के डाइट (जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान) में कर दिया जाए।
पत्र में उन्होंने लिखा, "मेरे दोनों हथेलियां नहीं हैं। मैंने पांवों से लिखना सीखा है। कृपया मेरा ट्रांसफर बाड़मेर कर दीजिए, ताकि मैं शिक्षक बनने का सपना पूरा कर सकूं।"
समाज और सरकार की जिम्मेदारी
लीला की कहानी न केवल हौसले और जुनून की मिसाल है, बल्कि यह सवाल भी उठाती है कि क्या नियम और कायदे इंसानियत से ऊपर हैं? जब एक दिव्यांग लड़की अपने सपनों को पूरा करने के लिए इतना बड़ा संघर्ष कर रही है, तो क्या सरकार और समाज को उसका साथ नहीं देना चाहिए? लीला ने अपने हौसले से यह साबित कर दिया है कि अगर मन में जिद हो, तो कोई भी बाधा रास्ता नहीं रोक सकती। लेकिन अब सरकार से अपेक्षा है कि वह लीला जैसे बच्चों के लिए नियमों में आवश्यक लचीलापन दिखाए, ताकि उनकी मेहनत और लगन रंग लाए।
नेताओं और समाज का समर्थन
लीला की इस भावुक अपील ने न केवल आम लोगों का ध्यान खींचा है, बल्कि स्थानीय नेताओं ने भी उनकी मदद के लिए कदम उठाए हैं। बाड़मेर के बीजेपी नेता एसएस खारा ने शिक्षा मंत्री को पत्र लिखकर लीला के लिए बाड़मेर में प्रशिक्षण केंद्र आवंटित करने और प्रवेश में शिथिलता प्रदान करने की मांग की है। इसके अलावा, सोशल मीडिया पर भी लीला की कहानी तेजी से वायरल हो रही है, और लोग उनकी हिम्मत की सराहना करते हुए सरकार से उनकी मदद की मांग कर रहे हैं।
सरकार से अपेक्षा: सपनों को मिले पंख
लीला कुंवर की कहानी उन तमाम लोगों के लिए एक प्रेरणा है, जो मुश्किल परिस्थितियों में भी हार मान लेते हैं। लेकिन उनकी यह जंग अकेले की नहीं है। यह समाज और सरकार की जिम्मेदारी है कि ऐसी प्रतिभाओं को सही मंच और अवसर प्रदान किए जाएं। यदि सरकार लीला के ट्रांसफर को मंजूरी देती है, तो यह न केवल उनके सपनों को पूरा करने में मदद करेगा, बल्कि अन्य दिव्यांग बच्चों के लिए भी एक मिसाल कायम करेगा।
आखिर, नियम जनता के लिए बने हैं, और जब बात इंसानियत और किसी के सपनों की हो, तो नियमों में लचीलापन दिखाना न केवल जरूरी है, बल्कि यह एक नैतिक जिम्मेदारी भी है। बाड़मेर की इस बेटी के सपनों को पंख देने के लिए अब सरकार और समाज को मिलकर कदम उठाने होंगे।