2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामला: बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2015 में दोषी ठहराए गए सभी 12 आरोपियों को क्यों बरी किया
बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2006 के मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामले में 12 आरोपियों को बरी कर दिया, अभियोजन के साक्ष्यों और कबूलनामों को अविश्वसनीय और यातना से प्राप्त बताया। 18 साल बाद सभी आरोपियों को रिहाई का आदेश दिया गया, सुप्रीम कोर्ट में अपील का रास्ता खुला।

11 जुलाई 2006 को मुंबई की पश्चिमी उपनगरीय रेलवे की सात लोकल ट्रेनों में सिलसिलेवार बम विस्फोटों ने पूरे देश को झकझोर दिया था। शाम करीब 6:30 बजे, भीड़भाड़ वाले समय में हुए इन धमाकों में 189 लोगों की मौत हो गई थी और 824 लोग घायल हुए थे। विस्फोट के लिए प्रेशर कुकर में बम रखे गए थे। इस मामले की जांच महाराष्ट्र की आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने की थी। आठ साल के लंबे ट्रायल के बाद, 2015 में विशेष अदालत ने 13 में से पांच आरोपियों को मौत की सजा और सात को उम्रकैद की सजा सुनाई थी, जबकि एक को बरी कर दिया गया था।
बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला
21 जुलाई 2025 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। जस्टिस अनिल एस किलोर और जस्टिस श्याम सी चांदक की विशेष बेंच ने 2015 के विशेष अदालत के फैसले को पलटते हुए सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया। कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के गवाहों की विश्वसनीयता और टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (टीआईपी) की प्रक्रिया पर सवाल उठाए। कोर्ट ने आदेश दिया कि यदि आरोपियों की अन्य किसी मामले में जरूरत न हो, तो उन्हें रिहा किया जाए। साथ ही, प्रत्येक आरोपी को 25,000 रुपये का निजी मुचलका भरने का निर्देश दिया गया।
कोर्ट ने क्यों किया बरी?
हाईकोर्ट ने अपने 671 पेज के फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष हर आरोप में संदेह से परे अपराध साबित करने में पूरी तरह विफल रहा। कोर्ट ने निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर दिया:
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गवाहों की विश्वसनीयता पर सवाल: अभियोजन पक्ष ने आठ गवाह पेश किए, जिनमें टैक्सी ड्राइवर, बम प्लांट करने वाले और साजिश में शामिल लोगों के गवाह शामिल थे। कोर्ट ने पाया कि टैक्सी ड्राइवरों ने घटना के 100 दिन बाद बयान दिए, और इतने लंबे अंतराल के बाद उनकी स्मृति पर भरोसा करना मुश्किल था।
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टीआईपी की प्रक्रिया अवैध: कोर्ट ने टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड को खारिज कर दिया, क्योंकि इसे करने वाले विशेष कार्यकारी अधिकारी (एसईओ) को इसका अधिकार नहीं था।
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जबरन कबूलनामे: बचाव पक्ष के वकीलों ने दावा किया कि आरोपियों से यातना देकर कबूलनामे लिए गए। कोर्ट ने केईएम और भाभा अस्पताल के चिकित्सा साक्ष्यों का हवाला देते हुए यातना की संभावना को स्वीकार किया। कोर्ट ने कबूलनामों को "असत्य और अपूर्ण" करार दिया, क्योंकि इन्हें दर्ज करने में एमसीओसीए नियमों का पालन नहीं किया गया।
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विस्फोटकों का सबूत नहीं: अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि विस्फोट में किस प्रकार के बम का इस्तेमाल हुआ। आरडीएक्स, डेटोनेटर, सर्किट बोर्ड जैसे साक्ष्यों की उचित कस्टडी और सीलिंग साबित नहीं हो सकी।
18 साल की लंबी कानूनी लड़ाई
इस मामले में 18 साल से अधिक समय तक कानूनी प्रक्रिया चली। विशेष अदालत ने 30 सितंबर 2015 को पांच आरोपियों - कमाल अंसारी, मोहम्मद फैसल आतुर रहमान शेख, एहतेशाम कुतबुद्दीन सिद्दीकी, नवेद हुसैन खान और आसिफ खान - को मौत की सजा सुनाई थी। सात अन्य - तनवीर अहमद मोहम्मद इब्राहिम अंसारी, मोहम्मद माजिद मोहम्मद शफी, शेख मोहम्मद अली आलम शेख, मोहम्मद साजिद मारगुब अंसारी, मुजम्मिल आतुर रहमान शेख, सुहैल महमूद शेख और जमीक अहमद लतीउर रहमान शेख - को उम्रकैद की सजा दी गई थी। एक आरोपी, वाहिद शेख, को विशेष अदालत ने बरी कर दिया था।
अपील और देरी
2015 में विशेष अदालत के फैसले के बाद, महाराष्ट्र सरकार ने मौत की सजा की पुष्टि के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। साथ ही, दोषियों ने भी अपनी सजा के खिलाफ अपील की थी। इस प्रक्रिया में कई देरी हुई:
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2019 में हाईकोर्ट ने पाया कि दोषियों को उनकी अपील के अधिकार की जानकारी नहीं दी गई थी। इसके बाद नए नोटिस जारी किए गए।
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जस्टिस ए एस गडकरी और जस्टिस आर डी धनुका की बेंच ने मामले को सुनने से इनकार कर दिया या कार्यभार के कारण सुनवाई टाल दी।
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2023 में जस्टिस नितिन डब्ल्यू सांबरे की बेंच ने सरकार को विशेष लोक अभियोजक (एसपीपी) नियुक्त करने में देरी के लिए फटकार लगाई।
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जुलाई 2024 में जस्टिस किलोर और चांदक की विशेष बेंच ने 75 से अधिक सुनवाइयों में मामले की गहन जांच की।
कोर्ट का निष्कर्ष: "गलत इंसाफ की भ्रामक तस्वीर"
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा, "वास्तविक अपराधी को सजा देना अपराधों को रोकने, कानून के शासन को बनाए रखने और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक ठोस और आवश्यक कदम है। लेकिन यह झूठा दिखावा कि मामला हल हो गया है और अपराधी को न्याय के कटघरे में लाया गया है, एक भ्रामक समाधान की भावना देता है। यह विश्वास को कमजोर करता है और समाज को झूठा आश्वासन देता है, जबकि वास्तव में असली खतरा अभी भी मौजूद है।"
हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद, प्रभावित पक्ष अब सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं। यह फैसला उन 12 लोगों के लिए राहत लेकर आया है, जो 18 साल से अधिक समय तक जेल में रहे। विशेष रूप से, एक दोषी की 2021 में कोविड-19 के कारण जेल में मृत्यु हो गई थी, लेकिन हाईकोर्ट ने उसे भी बरी कर दिया।