1971 के शरणार्थियों की बस्ती पर पुलिस का ‘खेल’: सुथारों की बस्ती में आंसुओं और अनदेखी की कहानी

1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान से पलायन कर बाड़मेर, राजस्थान में बसी ‘सुथारों की बस्ती’ के 250 शरणार्थी परिवार आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। अपनी जमा-पूंजी से खरीदी जमीन पर बस्ती बसाने वाले इन परिवारों को अब पुलिस ‘फायरिंग रेंज’ की संपत्ति बताकर परेशान कर रही है

Jun 13, 2025 - 13:46
1971 के शरणार्थियों की बस्ती पर पुलिस का ‘खेल’: सुथारों की बस्ती में आंसुओं और अनदेखी की कहानी

बाड़मेर, राजस्थान: 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अपनी जान और आबरू बचाने के लिए पाकिस्तान से पलायन कर भारत आए हिंदू शरणार्थियों की कहानी आज भी अधूरी है। बाड़मेर के गदाना रोड पर बसी ‘सुथारों की बस्ती’ में रहने वाले करीब 250 परिवार न केवल मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं, बल्कि अब उनकी जमीन पर भी संकट मंडरा रहा है। इन परिवारों ने अपनी जमा-पूंजी लगाकर खरीदी जमीन को अब पुलिस ‘फायरिंग रेंज’ की संपत्ति बताकर बोर्ड लगा रही है, जबकि जमीन बेचने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही। यह कहानी है दर्द, धोखे और सरकारी अनदेखी की, जहां वोट के समय बड़े-बड़े वादे करने वाले नेता बाद में मुंह फेर लेते हैं।

युद्ध की आग से निकलकर बस्ती बसाई, पर सपने अधूरे

1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान के सिंध और थारपारकर इलाकों से हजारों हिंदू परिवार धार्मिक उत्पीड़न और हिंसा से बचने के लिए भारत आए। इनमें से कई परिवार बाड़मेर पहुंचे और अपनी सारी पूंजी लगाकर स्थानीय लोगों से जमीन खरीदी। गदाना रोड पर बसी इस बस्ती को आज ‘सुथारों की बस्ती’ के नाम से जाना जाता है। इन परिवारों को रजिस्ट्री और पट्टे भी मिले, जिससे उन्हें लगा कि अब उनकी जिंदगी पटरी पर आएगी। लेकिन 54 साल बाद भी ये परिवार न तो पूरी तरह भारतीय नागरिकता के हकदार बन पाए, न ही उन्हें बिजली, पानी और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं मिलीं।

बस्ती के निवासी अपनी आपबीती सुनाते हुए कहते हैं, “हमने सब कुछ बेचकर ये जमीन खरीदी थी। सोचा था, बच्चे पढ़-लिखकर जिंदगी संवारेंगे। लेकिन आज तक न पानी की पाइपलाइन आई, न पक्के मकान बनाने की इजाजत मिली। अब पुलिस कह रही है कि ये जमीन उनकी है। हम कहां जाएं?” उनकी आंखों में निराशा और गुस्सा साफ झलकता है।

पुलिस का ‘जागना’ और शरणार्थियों का दर्द

बरसों तक इस बस्ती की अनदेखी करने वाली बाड़मेर पुलिस अचानक ‘जाग’ उठी है। पुलिस का दावा है कि सुथारों की बस्ती वाली जमीन उनके फायरिंग रेंज की है। इसके समर्थन में उन्होंने बस्ती में बोर्ड भी लगा दिए। लेकिन सवाल यह है कि अगर यह जमीन पुलिस की थी, तो इतने सालों तक इस पर कोई दावा क्यों नहीं किया गया? और जिन लोगों ने शरणार्थियों को यह जमीन बेची, उन पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही?

बस्ती की एक बुजुर्ग महिला  कहती हैं, “हमने अपनी इज्जत और जान बचाने के लिए पाकिस्तान छोड़ा। यहां आकर सब कुछ लगा दिया। अब पुलिस बोर्ड लगाकर हमें बेघर करना चाहती है। क्या हमारा कोई हक नहीं?” उनका दर्द उन तमाम परिवारों की पीड़ा को बयां करता है, जो दशकों से अनिश्चितता के साये में जी रहे हैं। 

मूलभूत सुविधाओं का अभाव: पानी, बिजली, स्कूल सब दूर

सुथारों की बस्ती शहर से महज एक किलोमीटर दूर है, फिर भी यह बस्ती विकास के नक्शे से गायब है। यहां न तो पीने के पानी की पाइपलाइन है, न बिजली का स्थायी कनेक्शन। बच्चे रेलवे ट्रैक पार करके एक सामुदायिक भवन में चलने वाले अस्थायी स्कूल में पढ़ने जाते हैं, जहां न पर्याप्त शिक्षक हैं, न बुनियादी सुविधाएं।

बस्ती की छात्रा कहती है, “हमें स्कूल जाने के लिए रेल की पटरी पार करनी पड़ती है। डर लगता है कि कहीं ट्रेन न आ जाए। स्कूल में सिर्फ एक कमरा है, जहां सारी कक्षाएं एक साथ चलती हैं।” बस्ती के लिए आवंटित स्कूल भवन आज तक नहीं खुला, और बच्चे शिक्षा के अभाव में भविष्य की उम्मीद खो रहे हैं। 

पानी की कमी भी बस्ती के लिए सबसे बड़ी समस्या है। निवासी बताते हैं कि उन्हें दूर-दूर तक पानी लाने के लिए जाना पड़ता है। एक युवा कहता है, “चुनाव के समय नेता आते हैं, कहते हैं कि पानी, बिजली, स्कूल सब देंगे। लेकिन वोट लेने के बाद कोई नहीं दिखता।”

चुनावी वादों का खोखलापन

सुथारों की बस्ती के लोग बताते हैं कि हर चुनाव में नेता उनके दरवाजे पर दस्तक देते हैं। वादे किए जाते हैं कि उनकी नागरिकता, जमीन और सुविधाओं के मसले हल होंगे। लेकिन चुनाव खत्म होते ही ये वादे हवा में उड़ जाते हैं। एक निवासी, भंवरलाल, तंज कसते हुए कहते हैं, “नेता हमारे दर्द को वोट में बदल लेते हैं, लेकिन हमारी जिंदगी वही की वही रहती है।”