"वंदे मातरम "स्वतंत्रता का प्रेरक गीत जिसे आज 150 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं....

7 नवंबर 1875 को बंकिमचंद्र ने 15 मिनट में लिखा “वंदे मातरम्” – आज 150 साल पूरे! बारिश की उस रात जन्मी दो लाइनें बंग-भंग से भगत सिंह की फाँसी तक गूँजीं। स्कूलों में बेंत खाई, जेल की दीवारें खून से रंगीं, विदेश में तिरंगा लहराया। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में कहा – “ये क्रांति का खून है!” आज भी हर सूरज के साथ 140 करोड़ गले गाते हैं – वंदे मातरम्!

Nov 7, 2025 - 11:39
"वंदे मातरम "स्वतंत्रता का प्रेरक गीत जिसे आज 150 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं....

वंदे मातरम की 150वीं वर्षगाँठ पर देश आज उस गीत को याद कर रहा है जिसने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी। 7 नवंबर 1875 का वह दिन जब कोलकाता के एक छोटे से कमरे में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने कलम उठाई और लिख डाला—वंदे मातरम्। यह दो शब्द ही काफी थे जो आगे चलकर लाखों गले से निकलकर क्रांति की लहर बन गए।बंकिम उस शाम अपने उपन्यास आनंदमठ की पांडुलिपि पर काम कर रहे थे। बाहर बारिश हो रही थी। अचानक उनके मन में माँ भारती का स्वरूप उभरा—सिंह पर सवार, दस हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिए दुर्गा का रूप। बस पंद्रह मिनट में पूरा गीत तैयार था। अगले ही दिन यह बंगदर्शन पत्रिका में छप गया। पाठकों ने इसे पढ़ा और सीने से लगा लिया।साल 1882 में जब आनंदमठ प्रकाशित हुआ तो गीत उपन्यास का हिस्सा बन चुका था। बंगाल के गाँव-गाँव में साधु-संन्यासी इसे गाते फिरते थे। 1905 आते-आते कोलकाता की गलियों में हर रविवार सुबह प्रभातफेरी निकलने लगी। बच्चे, बूढ़े, महिलाएँ—सबके मुँह पर एक ही स्वर—वंदे मातरम्। रवींद्रनाथ टैगोर खुद हारमोनियम लिए चलते थे।अंग्रेजों को पहली बार झटका तब लगा जब 1905 के बंग-भंग आंदोलन में लाखों लोग सड़कों पर उतरे और एक साथ चिल्लाए—वंदे मातरम्। लाठी-गोली चली, गिरफ्तारियाँ हुईं, लेकिन गीत नहीं रुका। स्कूलों में इसे गाने पर सजा होने लगी। एक बार कलकत्ता के एक स्कूल में मास्टर ने बच्चे को इसलिए पीटा क्योंकि उसने सुबह प्रार्थना में वंदे मातरम् गा दिया। बच्चे ने जवाब दिया, “मास्टर साहब, यह गीत मेरी माँ का नाम है, मैं इसे कैसे भूलूँ?”1907 में स्टटगार्ट की उस सभा में जब मैडम भीकाजी कामा ने तिरंगा फहराया तो झंडे के बीच में सुनहरे अक्षरों में लिखा था—वंदे मातरम्। विदेशी धरती पर पहली बार भारत का झंडा लहराया और उसकी गूँज हिंद महासागर पार कर भारत पहुँची।क्रांतिकारी इसे हथियार बना रहे थे। बटुकेश्वर दत्त जेल में गाते थे, भगत सिंह कोर्ट में गाते थे। 1929 में जब भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंका तो बाहर खड़े साथी गा रहे थे—वंदे मातरम्।24 जनवरी 1950 को जब संविधान सभा में डॉ. राजेंद्र प्रसाद खड़े हुए तो उनकी आँखें नम थीं। उन्होंने कहा, “यह गीत हमारे स्वाधीनता संग्राम का प्राण है। इसे जन-गण-मन के बराबर सम्मान मिलना चाहिए।” उसी दिन से हर आधिकारिक समारोह में पहले वंदे मातरम्, फिर जन-गण-मन गूँजता है।आज 150 साल बाद भी जब सुबह स्कूल की घंटी बजती है, जब तिरंगा फहराया जाता है, जब कोई जवान सीमा पर खड़ा होता है—उसके सीने में एक धुन धड़कती है। वह धुन 1875 की उस बारिश की रात में पैदा हुई थी। वह धुन है—वंदे मातरम्।यह गीत नहीं, भारत की धड़कन है। इसे गाओ, इसे जियो, इसे अगली पीढ़ी तक पहुँचाओ। क्योंकि जब तक यह गूँजेगा, भारत की आत्मा जागती रहेगी।

वंदे मातरम्! 

जय हिंद!